सवर्णों को 10% आरक्षण, क्या है संविधान संशोधन की प्रक्रिया?
आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग (सवर्णों)
के लिए 10% आरक्षण देने वाले विधेयक पर लोकसभा द्वारा 3 के मुकाबले 323
मतों से मुहर लगाए जाने के बाद इसे राज्यसभा ने 7 के मुकाबले 165 मतों से
पारित कर दिया है. क़ानून बनाए जाने की प्रक्रिया के तहत अब इसे राष्ट्रपति
की मंजूरी के लिए भेजा जायेगा. इसके उपरांत संविधान में संशोधन किया
जायेगा.
सरकार द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए संवैधानिक
संशोधन विधेयक 2018 (कांस्टीट्यूशन एमेंडमेंट बिल टू प्रोवाइड रिजर्वेशन टू
इकोनॉमिक वीकर सेक्शन -2018) दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया है. इस
विधेयक के जरिए संविधान की धारा 15 व 16 में संशोधन किया जाएगा. सवर्णों को
दिया जाने वाला आरक्षण मौजूदा 50 फीसदी आरक्षण से अलग होगा.
इस
फैसले का लाभ केवल हिन्दू सवर्णों को ही नहीं बल्कि मुस्लिम और ईसाई धर्म
के लोगों को भी मिलेगा. उदाहरण के तौर पर यदि कोई मुस्लिम सामान्य श्रेणी
में आता है और वह आर्थिक रूप से कमज़ोर है तो उसे 10 प्रतिशत आरक्षण का
फायदा मिलेगा. यह लाभ शिक्षा और नौकरियों के क्षेत्र में दिया जायेगा.
संविधान संशोधन की प्रक्रिया
• संविधान में संशोधन की प्रक्रिया का विवरण संविधान के अनुच्छेद 368 में दिया गया है.
• एक संशोधन के प्रस्ताव की शुरुआत संसद में होती है जहां इसे एक बिल के रूप में पेश किया जाता है.
• इसके बाद इसे संसद के प्रत्येक सदन के द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए.
•
प्रत्येक सदन में इसे उपस्थित सांसदों का दो तिहाई (2/3) बहुमत और मतदान
प्राप्त होना चाहिए और सभी सदस्यों (उपस्थित या अनुपस्थित) का साधारण बहुमत
प्राप्त होना चाहिए.
• इसके बाद विशिष्ट संशोधनों को कम से कम आधे राज्यों की विधायिकाओं के द्वारा भी अनुमोदित किया जाना चाहिए.
•
एक बार जब सभी अन्य अवस्थाएं पूरी कर ली जाती हैं, संशोधन के लिए भारत के
राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त की जाती है, परन्तु यह अंतिम अवस्था केवल
एक औपचारिकता ही है.
• संविधान संशोधन विधेयक के मामलों में राष्ट्रपति को किसी प्रकार की वीटो शक्ति प्राप्त नहीं है.
•
संसद के दोनों सदनों में पारित संशोधन विधेयक को राष्ट्रपति को मंजूरी
देना ही होता है क्योंकि संविधान (24वां) संशोधन अधिनियम, 1971 के द्वारा
अनुच्छेद 368 के खंड (2) में “अनुमति देगा“ शब्द लिखे गए हैं.
अनुच्छेद-15 के बदलाव
अनुच्छेद
15 में भारत के सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दिया गया है. अनुच्छेद
15 (1) के अनुसार राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति,
लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा.
अनुच्छेद 15 के अंतर्गत ही अनुच्छेद 15 (4) और 15 (5) में सामाजिक और
शैक्षिणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए विशेष
उपबंध की व्यवस्था की गई है.
यहां कहीं भी आर्थिक शब्द का प्रयोग
नहीं है. ऐसे में सवर्णों को आरक्षण देने के लिए सरकार को इस अनुच्छेद में
आर्थिक रूप से कमजोर शब्द जोड़ने की जरूरत पड़ेगी.
अनुच्छेद-16 के बदलाव
अनुच्छेद
16 सरकारी नौकरियों और सेवाओं में अवसर की समानता प्रदान करता है. लेकिन
16(4) 16(4)(क), 16(4)(ख) तथा अनुच्छेद 16(5) राज्य को अधिकार देते हैं कि
वे पिछड़े हुए नागरिकों के वर्गों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दे सकता
है.
यहां भी कहीं आर्थिक शब्द का उपयोग नहीं किया गया है. ऐसे में
माना जा रहा है कि इन दो अनुच्छेदो में आर्थिक शब्द जोड़कर इसमें संशोधन
किया जायेगा.
संविधान संशोधन की सीमाएं
भारतीय
सुप्रीम कोर्ट ने 1967 में सबसे पहला संवैधानिक संशोधन किया. यह संशोधन
गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य के मामले में किया गया था. यह संशोधन इस आधार पर
किया गया था कि यह अनुच्छेद 13 का उल्लंघन कर रहा था, जिसके अनुसार "राज्य
कोई ऐसा कानून नहीं बनाएगा जो (मौलिक अधिकारों के चार्टर)" में दिए गए
अधिकारों का संक्षिप्तीकरण करता हो या उसे नष्ट करता हो. संविधान की संरचना
या आधारभूत ढांचे में परिवर्तन करने का अर्थ नया संविधान बनाया जाना माना
जायेगा. इसलिए संसद संविधान में ऐसा कोई परिवर्तन या संशोधन नहीं कर सकती
जिससे संविधान का आधारभूत ढांचा प्रभावित होता है.
केशवानन्द भारती
बनाम केरल राज्य के ऐतिहासिक मामलों में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया
कि संविधान के अनुच्छेद 368 में संसद को जो संशोधन की शक्ति प्राप्त है,
वह असीमित नहीं है. न्यायालय ने 7:6 से दिये गये निर्णय में यह स्पष्ट किया
कि संसद संविधान संशोधन शक्ति के प्रयोग द्वारा संविधान के आधारभूत ढांचे
को नष्ट नहीं किया जा सकता है. किन्तु आधारभूत ढांचा क्या है, इसका
निर्धारण न्यायालय आवश्यकता अनुरूप करेगा.
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